ज़ालिम तू मेरी सादा-दिली पर तो रहम कर
रूठा था तुझ से आप ही और आप मन गया
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चाहें हैं ये हम भी कि रहे पाक मोहब्बत
आगे कुछ उस के ज़िक्र-ए-दिल-ए-ज़ार मत करो
आवे ख़िज़ाँ चमन की तरफ़ गर मैं रू करूँ
मय की तौबा को तो मुद्दत हुई 'क़ाएम' लेकिन
शैख़-जी आया न मस्जिद में वो काफ़िर वर्ना हम
आगे मिरे न ग़ैर से गो तुम ने बात की
फिर के जो वो शोख़ नज़र कर गया
जो कोई दर पे तिरे बैठे हैं
गर्म कर दे तू टुक आग़ोश में आ
टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़
'क़ाएम' मैं इख़्तियार किया शाएरी का ऐब
न कह कि बे-असर अन्फ़ास-ए-सर्द होते हैं