ये पास-ए-दीं तिरा है सब उस वक़्त तक कि शैख़
देखा नहीं है तू ने वो काफ़िर फ़रंग का
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क़ासिद को दे न ऐ दिल उस गुल-बदन की पाती
किधर अबरू की उस के धाक नहीं
वाक़िफ़ नहीं हम कि क्या है बेहतर
आज जी में है कि खुल कर मय-परस्ती कीजिए
ज़ाहिद दर-ए-मस्जिद पे ख़राबात की तू ने
कर इम्तिहाँ टुक हो के तू खूँ-ख़्वार यक तरफ़
मैं न वो हूँ कि तनिक ग़ुस्से में टल जाऊँगा
उठ जाए गर ये बीच से पर्दा हिजाब का
कूचा तिरा नशे की ये शिद्दत जहाँ से लाग
कभू दिखा के कमर और कभू दहाँ मुझ को
वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती है
दर्द-ए-दिल क्यूँ-कि कहूँ मैं उस से