टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़
कुछ क़स्र-ए-दिल नहीं कि बनाया न जाएगा
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मअनी न आएँ दर्क में ग़ैर-अज़-वजूद-ए-लफ़्ज़
नहीं बंद-ए-क़बा में तन हमारा
बे-शग़ल न ज़िंदगी बसर कर
मैं हूँ कि मेरे दुख पे कोई चश्म-ए-तर न हो
क़ाएम मैं ग़ज़ल तौर किया रेख़्ता वर्ना
वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
जिस को हस्ती ओ अदम जानते हैं
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
शामत है क्या कि शैख़ से कोई मिले कि वाँ
दर्द-ए-दिल क्यूँ-कि कहूँ मैं उस से
टुकड़े कई इक दिल के मैं आपस में सिए हैं
बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत पर