सुब्ह तक था वहीं ये मुख़्लिस भी
आप रखते थे शब जहाँ तशरीफ़
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मैं कहा अहद क्या किया था रात
जिस को हस्ती ओ अदम जानते हैं
क़ाज़ी ख़बर ले मय को भी लिक्खा है वाँ मुबाह
दिन रात किस की याद थी कैसा मलाल था
मैं कहा ख़ल्क़ तुम्हारी जो कमर कहती है
शैख़-जी आया न मस्जिद में वो काफ़िर वर्ना हम
इस को न रात कह तू न इस को बता ग़लत
वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
क़त्ल पे तेरे मुझे कद चाहिए
जूँ इबरत-ए-कोर जल्वा-गर हूँ
'क़ाएम' मैं इख़्तियार किया शाएरी का ऐब
ऐ इश्क़ मिरे दोश पे तू बोझ रख अपना