शैख़-जी आया न मस्जिद में वो काफ़िर वर्ना हम
पूछते तुम से कि अब वो पारसाई क्या हुई
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मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या
गो ब-नाम इक ज़बान रखती है शम्अ
तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई
आगे कुछ उस के ज़िक्र-ए-दिल-ए-ज़ार मत करो
दिल मिरा देख देख जलता है
पढ़ के क़ासिद ख़त मिरा उस बद-ज़बाँ ने क्या कहा
ख़त के आते ही वो मुखड़े की सफ़ाई क्या हुई
टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़
याँ तलक ख़ुश हूँ अमारिद से कि ऐ रब्ब-ए-करीम
हम मूए फिरते हैं और ख़्वाहिश-ए-जाँ है उस को
वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
दूँ हम-सरी में बैठ के किस ना-सज़ा के साथ