रस्म इस घर की नहीं दाद किसू की दे कोई
शोर-ओ-ग़ौग़ा न कर ऐ मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार अबस
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ता-चंद सुख़न-साज़ी-ए-नैरंग-ए-ख़राबात
मैं किन आँखों से ये देखूँ कि साया साथ हो तेरे
शैख़-जी क्यूँकि मआसी से बचें हम कि गुनाह
की वफ़ा किस से भला फ़ाहिशा-ए-दुनिया ने
हर-चंद दुख-दही से ज़माने को इश्क़ है
देखा है आज राह में हम इक हरीर-पोश
जी में चुहलें थीं जो कुछ सो तो गईं यार के साथ
कब मैं कहता हूँ कि तेरा मैं गुनहगार न था
दिल मिरा देख देख जलता है
ओहदे से तेरे हम को बर आया न जाएगा
दर्द-ए-दिल कुछ कहा नहीं जाता
बड़ न कह बात को तीं हज़रत-ए-'क़ाएम' की कि वो