क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद
कुछ दूर अपने हाथ से जब बाम रह गया
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लाएक़ वफ़ा के ख़ल्क़ ओ सज़ा-ए-जफ़ा हूँ मैं
वाक़िफ़ नहीं हम कि क्या है बेहतर
मैं न वो हूँ कि तनिक ग़ुस्से में टल जाऊँगा
'क़ाएम' हयात-ओ-मर्ग-ए-बुज़-ओ-गाव में हैं नफ़अ
मोहतसिब से सलाह कीजिएगा
मअनी न आएँ दर्क में ग़ैर-अज़-वजूद-ए-लफ़्ज़
सहरा पे गर जुनूँ मुझे लावे इताब में
ओहदे से तेरे हम को बर आया न जाएगा
आज आप मिरे हाल पे करते हैं तअस्सुफ़
मैं कहा ख़ल्क़ तुम्हारी जो कमर कहती है
होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह