'क़ाएम' मैं इख़्तियार किया शाएरी का ऐब
पहुँचा न कोई शख़्स जब अपने हुनर तलक
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मुझ बे-गुनह के क़त्ल का आहंग कब तलक
वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
पास-ए-इख़्लास सख़्त है तकलीफ़
माँगे है तिरे मिलने को बे-तरह से दिल आज
इलाही वाक़ई इतना ही बद है फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर
दिन ही मिलिएगा या शब आइएगा
हम मूए फिरते हैं और ख़्वाहिश-ए-जाँ है उस को
आओ कुछ शग़्ल करें बैठे हैं उर्यां इतने
संग को आब करें पल में हमारी बातें
किस बात पर तिरी मैं करूँ ए'तिबार हाए
ये पास-ए-दीं तिरा है सब उस वक़्त तक कि शैख़
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को