पूछो हो मुझ से तुम कि पिएगा भी तू शराब
ऐसा कहाँ का शैख़ हूँ या पारसा हूँ मैं
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तर्क-ए-वफ़ा गरचे सदाक़त नहीं
शब जो दिल बे-क़रार था क्या था
जूँ इबरत-ए-कोर जल्वा-गर हूँ
थोड़ी सी बात में 'क़ाएम' की तू होता है ख़फ़ा
टुक फ़हम इरादत से बरहमन की समझ शैख़
सैर उस कूचे की करता हूँ कि जिब्रील जहाँ
तर्क कर अपना भी कि इस राह में
न पूछ ''गिर्या-ए-ख़ूँ का तिरे है क्या बाइस''
टुक तो ख़ामोश रखो मुँह में ज़बाँ सुनते हो
टुकड़े कई इक दिल के मैं आपस में सिए हैं
हम दिवानों को बस है पोशिश से
न बीम-ए-ग़म है ने शादी की हम उम्मीद करते हैं