परवाने की शब की शाम हूँ मैं
या रोज़ की शम्अ' की सहर हूँ
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तरफ़ ने बंद किया है हर इक तरफ़ से तुझे
शब किस से ये हम जुदा रहे हैं
दिल से बस हाथ उठा तू अब ऐ इश्क़
क़ाएम मैं ग़ज़ल तौर किया रेख़्ता वर्ना
पढ़ के क़ासिद ख़त मिरा उस बद-ज़बाँ ने क्या कहा
वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती है
ख़स नमत साथ मौज के लग ले
मालूम कुछ हुआ ही न दिल का असर कहीं
क़िस्सा-ए-बरहना-पाई को मिरे ऐ मजनूँ
गो याँ न किसी को आए अफ़सोस
क़ाज़ी ख़बर ले मय को भी लिक्खा है वाँ मुबाह
हर तरफ़ ज़र्फ़-ए-वज़ू भरते हैं ज़ाहिद हुई सुब्ह