न जाने कौन सी साअत चमन से बिछड़े थे
कि आँख भर के न फिर सू-ए-गुल्सिताँ देखा
Gulzar
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जूँ इबरत-ए-कोर जल्वा-गर हूँ
क्या में क्या ए'तिबार मेरा
कोई दिन आगे भी ज़ाहिद अजब ज़माना था
न बीम-ए-ग़म है ने शादी की हम उम्मीद करते हैं
रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से
दर्द-ए-दिल कुछ कहा नहीं जाता
ईराद कर न पढ़ के मिरा ख़त कि ये तमाम
वाक़िफ़ नहीं हम कि क्या है बेहतर
किस बात पर तिरी मैं करूँ ए'तिबार हाए
डहा खड़ा है हज़ारों जगह से क़स्र-ए-वजूद
देखा है आज राह में हम इक हरीर-पोश
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़