मय की तौबा को तो मुद्दत हुई 'क़ाएम' लेकिन
बे-तलब अब भी जो मिल जाए तो इंकार नहीं
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मअनी न आएँ दर्क में ग़ैर-अज़-वजूद-ए-लफ़्ज़
आप जो कुछ क़रार करते हैं
की वफ़ा किस से भला फ़ाहिशा-ए-दुनिया ने
दुनिया में हम रहे तो कई दिन प इस तरह
दर्द-ए-दिल क्यूँ-कि कहूँ मैं उस से
निगाहों से निगाहें सामने होते ही जब लड़ियाँ
टुकड़े कई इक दिल के मैं आपस में सिए हैं
आज जी में है कि खुल कर मय-परस्ती कीजिए
दिल को फाँसा है हर इक उज़्व की तेरे छब ने
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
अबस हैं नासेहा हम से ज़-ख़ुद-रफ़तों की तदबीरें
तर्क कर अपना भी कि इस राह में