जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब
अपने आईन में वो पाक नहीं
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ज़ालिम तू मेरी सादा-दिली पर तो रहम कर
की वफ़ा किस से भला फ़ाहिशा-ए-दुनिया ने
रहने दे शब अपने पास मुझ को
जी में चुहलें थीं जो कुछ सो तो गईं यार के साथ
कर न जुरअत तू ऐ तबीब कि ये
जूँ शीशा भरा हूँ मय से लेकिन
बाँग-ए-मस्जिद से कब उस को सर-ए-मानूसी है
हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत
नासेहा कर न इसे सी के पशेमाँ मुझ को
न पूछो कि 'क़ाएम' का क्या हाल है
पढ़ के क़ासिद ख़त मिरा उस बद-ज़बाँ ने क्या कहा
रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से