जिस चश्म को वो मेरा ख़ुश-चश्म नज़र आया
नर्गिस का उसे जल्वा इक पश्म नज़र आया
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चाहिए आदमी हो बार-ए-तअल्लुक़ से बरी
उठ जाए गर ये बीच से पर्दा हिजाब का
संग को आब करें पल में हमारी बातें
पूछो हो मुझ से तुम कि पिएगा भी तू शराब
'क़ाएम' मैं इख़्तियार किया शाएरी का ऐब
गह पीर-ए-शैख़ गाह मुरीद-ए-मुग़ाँ रहे
कब मैं कहता हूँ कि तेरा मैं गुनहगार न था
जिस को हस्ती ओ अदम जानते हैं
मालूम कुछ हुआ ही न दिल का असर कहीं
हर दम आने से मैं भी हूँ नादिम
फ़िक्र-ए-तामीर में हूँ फिर भी मैं घर की ऐ चर्ख़
आतिश-ए-तब ने की है ताब शुरूअ