हर उज़्व है दिल-फ़रेब तेरा
कहिए किसे कौन सा है बेहतर
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दिन ही मिलिएगा या शब आइएगा
शब जो दिल बे-क़रार था क्या था
न कह कि बे-असर अन्फ़ास-ए-सर्द होते हैं
हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत
दुख़्तर-ए-रज़ तो है बेटी सी तिरे ऊपर हराम
मैं कहा ख़ल्क़ तुम्हारी जो कमर कहती है
दूँ हम-सरी में बैठ के किस ना-सज़ा के साथ
टुक फ़हम इरादत से बरहमन की समझ शैख़
ओहदे से तेरे हम को बर आया न जाएगा
जी तलक आतिश-ए-हिज्राँ में सँभाला न गया
क़त्ल पे तेरे मुझे कद चाहिए
शैख़-जी क्यूँकि मआसी से बचें हम कि गुनाह