हर दम आने से मैं भी हूँ नादिम
क्या करूँ पर रहा नहीं जाता
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'क़ाएम' हयात-ओ-मर्ग-ए-बुज़-ओ-गाव में हैं नफ़अ
दिन रात किस की याद थी कैसा मलाल था
पढ़ के क़ासिद ख़त मिरा उस बद-ज़बाँ ने क्या कहा
पहले ही अपनी कौन थी वाँ क़द्र-ओ-मंज़िलत
पूछो हो मुझ से तुम कि पिएगा भी तू शराब
याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
न बीम-ए-ग़म है ने शादी की हम उम्मीद करते हैं
वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती है
तरफ़ ने बंद किया है हर इक तरफ़ से तुझे
सहरा पे गर जुनूँ मुझे लावे इताब में
मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या
हम मूए फिरते हैं और ख़्वाहिश-ए-जाँ है उस को