गर यही ना-साज़ी-ए-दीं है तो इक दिन शैख़-जी
फिर वही हम हैं वही बुत है वही ज़ुन्नार है
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ता-चंद सुख़न-साज़ी-ए-नैरंग-ए-ख़राबात
गिर्या तो 'क़ाएम' थमा मिज़्गाँ अभी होंगे न ख़ुश्क
परवाने की शब की शाम हूँ मैं
दिल में अपने नहीं कोई जुज़-यार
पूछो हो मुझ से तुम कि पिएगा भी तू शराब
मोहतसिब से सलाह कीजिएगा
छोड़ मावा-ए-ज़क़न ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ में फँसा
क़ासिद को दे न ऐ दिल उस गुल-बदन की पाती
न पूछ ''गिर्या-ए-ख़ूँ का तिरे है क्या बाइस''
माँगे है तिरे मिलने को बे-तरह से दिल आज
शामत है क्या कि शैख़ से कोई मिले कि वाँ
मय पी जो चाहे आतिश-ए-दोज़ख़ से तू नजात