दिल से बस हाथ उठा तू अब ऐ इश्क़
देह-ए-वीरान पर ख़िराज नहीं
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हर तरफ़ ज़र्फ़-ए-वज़ू भरते हैं ज़ाहिद हुई सुब्ह
आतिश-ए-तब ने की है ताब शुरूअ
तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई
डहा खड़ा है हज़ारों जगह से क़स्र-ए-वजूद
देखा है आज राह में हम इक हरीर-पोश
क्या में क्या ए'तिबार मेरा
रहने दे शब अपने पास मुझ को
होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह
मअनी न आएँ दर्क में ग़ैर-अज़-वजूद-ए-लफ़्ज़
'क़ाएम' जो कहें हैं फ़ारसी यार
मय की तौबा को तो मुद्दत हुई 'क़ाएम' लेकिन
क़ासिद को दे न ऐ दिल उस गुल-बदन की पाती