चाहें हैं ये हम भी कि रहे पाक मोहब्बत
पर जिस में ये दूरी हो वो क्या ख़ाक मोहब्बत
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शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
आ ऐ 'असर' मुलाज़िम-ए-सरकार-ए-गिर्या हो
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
आप जो कुछ क़रार करते हैं
मैं दिवाना हूँ सदा का मुझे मत क़ैद करो
पहले ही गधा मिले जहाँ शैख़
जिस चश्म को वो मेरा ख़ुश-चश्म नज़र आया
इलाही वाक़ई इतना ही बद है फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर
हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत
याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या
ऐ इश्क़ मिरे दोश पे तू बोझ रख अपना