बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत पर
खुली जो आँख तो गोया कि एहतेलाम हुआ
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मिरी नज़र में है 'क़ाएम' ये काएनात तमाम
मैं हूँ कि मेरे दुख पे कोई चश्म-ए-तर न हो
मअनी न आएँ दर्क में ग़ैर-अज़-वजूद-ए-लफ़्ज़
वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
सहरा पे गर जुनूँ मुझे लावे इताब में
नज़र में काबा क्या ठहरे कि याँ दैर
'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूल
बड़ न कह बात को तीं हज़रत-ए-'क़ाएम' की कि वो
मय की तौबा को तो मुद्दत हुई 'क़ाएम' लेकिन
शैख़-जी आया न मस्जिद में वो काफ़िर वर्ना हम
गर यही ना-साज़ी-ए-दीं है तो इक दिन शैख़-जी
जूँ शीशा भरा हूँ मय से लेकिन