वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
जुज़ ये कि आह कीजिए सो आह ही नहीं
तकलीफ़-ए-बज़्म-ए-अहल-ए-जहाँ ता-कुजा कि दिल
मुतलक़ में वाँ के रंग से आगाह ही नहीं
आ ऐ 'असर' मुलाज़िम-ए-सरकार-ए-गिर्या हो
याँ जुज़ गुहर ख़ज़ाने में तनख़्वाह ही नहीं
लाज़िम थे हम बुकारत-ए-दुनिया को ऐ फ़लक
तीं दी ये दुख़्त उन को जिन्हें बाह ही नहीं
'क़ाएम' मता-ए-दिल को अबस क्यूँ करे है ख़्वार
इस जिंस की जहाँ में कोई चाह ही नहीं
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