उठ जाए गर ये बीच से पर्दा हिजाब का
उठ जाए गर ये बीच से पर्दा हिजाब का
दरिया ही फिर तो नाम है हर इक हुबाब का
क्यूँ छोड़ते हो दुर्द-ए-तह-ए-जाम मय-कशो
ज़र्रा है ये भी आख़िर उसी आफ़्ताब का
ऐसी हवा में पास न साक़ी न जाम-ए-मय
रोना बजा है हाल पे मेरे सहाब का
होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह
इस उम्र में है वर्ना मज़ा क्या ख़िज़ाब का
इस दश्त-ए-पुर-सराब में बहके बहुत प हैफ़
देखा तो दो क़दम पे ठिकाना था आब का
ज़ाहिद मरीज़-ए-इश्क़ पे हो शर्ब-ए-मय हराम
बारे ये मसअला है तिरी किस किताब का
जूँ सुर्मा क्यूँ न चश्म में 'क़ाएम' की हो जगह
आख़िर वो ख़ाक-ए-पा है शह-ए-बू-तुराब का
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