पास-ए-इख़्लास सख़्त है तकलीफ़
पास-ए-इख़्लास सख़्त है तकलीफ़
ता-कुजा ख़ातिर-ए-वज़ी-ओ-शरीफ़
चश्म ओ दिल से न थी ये चश्म हमें
कि न गिर्या के हो सकेंगे हरीफ़
सुब्ह तक था वहीं ये मुख़्लिस भी
आप रखते थे शब जहाँ तशरीफ़
मुझ से तुझ बिन गया जो फ़स्ल-ए-रबी
कब ये अश्जार से करे है ख़रीफ़
यूँ कभू तू ने मय न दी साक़ी
ना-ए-हुल्क़ूम को समझते क़ीफ़
अपने तईं आप वो नहीं पाते
फ़िक्र में तुझ कमर की हैं जो ज़ईफ़
क्यूँ न वाही हो शेर 'क़ाएम' का
है दिवाने की आख़िरश तसनीफ़
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