हम हैं जिन्हों ने नाम-ए-चमन बू नहीं किया
हम हैं जिन्हों ने नाम-ए-चमन बू नहीं किया
आई सबा जिधर से उधर रू नहीं किया
हम हैं हवा-ए-वस्ल में उस गुल की दर-ब-दर
जिस का सबा ने तौफ़-ए-सर-ए-कू नहीं किया
वो ख़ूब-रू है कौन सा जग में फ़रिश्ता-वश
दो रोज़ मिल के हम जिसे बद-ख़ू नहीं किया
'क़ाएम' को इस तरह से तू देता है गालियाँ
जिस को किसी ने आज तलक तू नहीं किया
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