हर-चंद दुख-दही से ज़माने को इश्क़ है
हर-चंद दुख-दही से ज़माने को इश्क़ है
लेकिन मिरे भी ताब के लाने को इश्क़ है
आशुफ़्ता-सर हैं याँ दिल-ए-सद-चाक भी कई
तन्हा न तेरी ज़ुल्फ़ से शाने को इश्क़ है
अफ़्लाक बैठे जाएँ थे जिस बोझ के तले
आदम के वैसे बार उठाने को इश्क़ है
वहशत को अपनी शहर ओ बयाबाँ में जा नहीं
आक़िल को अब दुआ ओ दिवाने को इश्क़ है
या-रब बन आई आदमी मर जाए पर न हो
वो रंज-ए-बद-बला जो कहाने को इश्क़ है
दिल को छुटा वहीं से फंसाया तो ज़ुल्फ़ में
ऐ इश्क़ तेरे बात बढ़ाने को इश्क़ है
'क़ाएम' हवस से गो कि कही सब ने ये ग़ज़ल
लेकिन तिरे रदीफ़ बिठाने को इश्क़ है
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