देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
करता रहा तू अपनी ही बेदाद की तरफ़
जिस गुल ने सुन के नाला-ए-बुलबुल उड़ा दिया
रखता है गोश कब मिरी फ़रियाद की तरफ़
मूँद ऐ पर-ए-शिकस्ता न चाक-ए-क़फ़स कि हम
टुक याँ को देख लेते हैं सय्याद की तरफ़
कहते हैं गिर्या ख़ाना-ए-दिल कर चुका ख़राब
आता है चश्म अब तिरी बुनियाद की तरफ़
लीजो ख़बर मिरे भी दिल-ए-ज़ार की नसीम
जावे अगर तू उस सितम-आबाद की तरफ़
'क़ाएम' तू इस ग़ज़ल को यूँही सरसरी ही कह
होना पड़ेगा हज़रत-ए-उस्ताद की तरफ़
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