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हुदूद-ए-जल्वा-ए-कौन-ओ-मकाँ में रहते हैं - क़तील शिफ़ाई कविता - Darsaal

हुदूद-ए-जल्वा-ए-कौन-ओ-मकाँ में रहते हैं

हुदूद-ए-जल्वा-ए-कौन-ओ-मकाँ में रहते हैं

न जाने अहल-ए-नज़र किस जहाँ में रहते हैं

हमें तो मौसम-ए-गुल ने ही कर दिया रुस्वा

सुना है लोग सलामत ख़िज़ाँ में रहते हैं

अयाँ है उन के सितम से हमारा ज़ौक-ए-नियाज़

हम आग बन के मिज़ाज-ए-बुताँ में रहते हैं

कहाँ तलाश करेगी हमें बहार कि हम

कभी क़फ़स में कभी आशियाँ में रहते हैं

वो राज़ जिन का लबों ने न एहतिराम किया

बरहना हो के दिल-ए-राज़-दाँ में रहते हैं

गुरूर-ए-हिकमत-ओ-दानिश में झूमने वालो

कुछ अहल-ए-दिल भी इसी ख़ाक-दाँ में रहते हैं

'क़तील' अर्ज़-ए-वतन में भी हूँ मैं ख़ाक-बसर

मिरे नसीब कहीं आसमाँ में रहते हैं

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In Hindi By Famous Poet Qateel Shifai. is written by Qateel Shifai. Complete Poem in Hindi by Qateel Shifai. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.