हुदूद-ए-जल्वा-ए-कौन-ओ-मकाँ में रहते हैं
हुदूद-ए-जल्वा-ए-कौन-ओ-मकाँ में रहते हैं
न जाने अहल-ए-नज़र किस जहाँ में रहते हैं
हमें तो मौसम-ए-गुल ने ही कर दिया रुस्वा
सुना है लोग सलामत ख़िज़ाँ में रहते हैं
अयाँ है उन के सितम से हमारा ज़ौक-ए-नियाज़
हम आग बन के मिज़ाज-ए-बुताँ में रहते हैं
कहाँ तलाश करेगी हमें बहार कि हम
कभी क़फ़स में कभी आशियाँ में रहते हैं
वो राज़ जिन का लबों ने न एहतिराम किया
बरहना हो के दिल-ए-राज़-दाँ में रहते हैं
गुरूर-ए-हिकमत-ओ-दानिश में झूमने वालो
कुछ अहल-ए-दिल भी इसी ख़ाक-दाँ में रहते हैं
'क़तील' अर्ज़-ए-वतन में भी हूँ मैं ख़ाक-बसर
मिरे नसीब कहीं आसमाँ में रहते हैं
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