हालात की उजड़ी महफ़िल में अब कोई सुलगता साज़ नहीं
हालात की उजड़ी महफ़िल में अब कोई सुलगता साज़ नहीं
नग़्मे तो लपकते हैं लेकिन शो'लों सा कहीं अंदाज़ नहीं
हर बर्ग-ए-हसीं को देते हैं ज़ख़्मों के महकते नज़राने
काँटों से बड़ा इस गुलशन में फूलों का कोई दम-साज़ नहीं
या साया-ए-गुल का है ये करम या फ़र्क़ है दाने पानी का
पंछी तो वही हैं गुलशन में पहली सी मगर पर्वाज़ नहीं
मरक़द सा बना है ख़ुश्बू का मुँह बंद कली के सीने में
ऐ शाम-ए-गुलिस्ताँ तू ही बता ये भी तो किसी का राज़ नहीं
छिलके न सुबू और झूम उठें क़तरा न मिले और प्यास बुझे
ये ज़र्फ़ है पीने वालों का साक़ी का कोई ए'जाज़ नहीं
ऐ सेहन-ए-चमन के ज़िंदानी कर जश्न-ए-तरब की तय्यारी
बजते हैं बहारों के कंगन ज़ंजीर की ये आवाज़ नहीं
(389) Peoples Rate This