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अगरचे मुझ को जुदाई तिरी गवारा नहीं - क़तील शिफ़ाई कविता - Darsaal

अगरचे मुझ को जुदाई तिरी गवारा नहीं

अगरचे मुझ को जुदाई तिरी गवारा नहीं

सिवाए इस के मगर और कोई चारा नहीं

ख़ुशी से कौन भुलाता है अपने प्यारों को

क़ुसूर इस में ज़माने का है तुम्हारा नहीं

तुम्हारे ज़िक्र से याद आए क्या घटा के सिवा

हमारे पास कोई और इस्तिआरा नहीं

ये इल्तिफ़ात की भीक अपने पास रहने दे

तिरे फ़क़ीर ने दामन कभी पसारा नहीं

मिरा तो सिर्फ़ भँवर तक सफ़ीना पहुँचा है

तुझे तो डूबने वालों ने भी पुकारा नहीं

हर एक रब्त तिरे वास्ते से था वर्ना

भरे जहाँ में कोई आश्ना हमारा नहीं

जो तेरी दीद ने बख़्शे वही हैं ज़ख़्म बहुत

अब अपने दिल में कोई हसरत-ए-नज़ारा नहीं

बना सकूँ जिसे झूमर तुम्हारे माथे का

फ़लक पे आज भी ऐसा कोई सितारा नहीं

चलाए जाओ 'क़तील' अपना कारोबार-ए-वफ़ा

जो इस में जान भी जाए तो कुछ ख़सारा नहीं

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In Hindi By Famous Poet Qateel Shifai. is written by Qateel Shifai. Complete Poem in Hindi by Qateel Shifai. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.