एक कत्बे की तलाश में
हवाओं के तआक़ुब में
मैं इक तितली से टकरा के ज़मीं पर गिर पड़ा हूँ
परों की गुदगुदाहट से
मिरे माथे से ख़ूँ बहने लगा है
मुझे यकसानियत से ख़ौफ़ आता है
ज़्यादा देर इक ही कैफ़ियत में ज़िंदा रहना कितना मुश्किल है
पुराने मौसमों की नौहा-ख़्वानी में
नए मौसम की ख़्वाहिश पैदा होती है
मैं अपने हलक़ के अंदर कुआँ तामीर करता हूँ
मैं उड़ सकता हूँ
लेकिन मेरी बे-ताबी को जाने कौन सी मौज-ए-हवा
आग़ोश में लेगी
मैं थक के बैठ सकता हूँ
मगर सारी ज़मीं मेरे लिए औंधी पड़ी है
मिरी सोचों के मरकज़ से निकलते रास्तों पर
मेरे नक़्श-ए-पा के बे-तरतीब ख़ाकों में
अब आँखें उग गईं हैं
हवा के हाथ में इक लौह मेरा ख़्वाब-नामा है
हवाओं के तआक़ुब में अगर मैं मर गया
तो कौन मेरी लहद पर उस लौह को कतबा बनाएगा
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