बरगद से वापसी
वो बच्ची गुम-शुदा हैरत से आसार-ए-क़दीमा वाला सफ़्हा खौल कर
स्कूल की बुक पढ़ रही है
उसे मालूम ही कब है
जिसे निरवान मिलता है
वो सदियाँ ओढ़ कर सफ़्हों में बुद्धा बन के रहता है
वो पढ़ते पढ़ते जब तस्वीर पर नज़रें जमाती है
तो उस को, आँख के हल्क़ों में मुर्दा ख़्वाहिशों की ज़र्दियाँ महसूस होती हैं
घने बरगद के साए में पड़े रहने से
उस की गाल पे सूरज का बोसा ही नहीं है
उस के सर के बाल की सब ताज़गी जंगल के सब्ज़े में पड़ी है
उसे बुद्धा पे रहम आया
वो बच्ची हाथ में पैंसिल पकड़ कर सोचती है
और फिर तस्वीर के ऊपर
लकीरें खींच कर मूँछें बनाती है
और इस तब्दीली से अंदर ही अंदर मुस्कुराती है
कि जैसे उस ने दानिश की सभी कमज़ोरियाँ
अपनी लकीरों से छुपा दी हैं
उसे मालूम ही कब है
कि उस के हाथ की जुम्बिश ने अंदर की
सभी आलाइशें चेहरे पे रख दी हैं
वो जिन को जिस्म से आज़ाद कर के एक अर्से से त्यागी था
अब आसार-ए-क़दीमा वाले सफ़्हे पर दनाया और 'सता' के कोई मफ़्हूम ही बाक़ी नहीं हैं
ज़रा मूँछें बनाने से सभी दुख मिट गए हैं
'मार्ग' की कोई ज़रूरत ही नहीं
बुड्ढा कपिलवस्तु का शहज़ादा दोबारा बन गया है
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