तुझे छू कर भी मिरी रूह में शिद्दत नहीं है
तुझे छू कर भी मिरी रूह में शिद्दत नहीं है
दिल-लगी सी है ये दर-अस्ल मोहब्बत नहीं है
अपने अंदर ही घुटा रहने लगा हूँ अब तो
तेरे ग़म में अभी रोने की नज़ाकत नहीं है
मेरे जज़्बों में मिरी रूह की पाकीज़गी है
जो भी लिखता हूँ मुझे उस की मलामत नहीं है
दर-ए-इम्कान की दस्तक मुझे भेजी गई है
मेरी क़िस्मत में तो मौजूद की दौलत नहीं है
एक सरशार अज़िय्यत में गिरफ़्तार हूँ मैं
मगर अफ़्सोस कि ये तेरी बदौलत नहीं है
मेरे अंदर कोई कोहराम मचा रहता है
ऐ ज़माने तुझे सुनने की ज़रूरत नहीं है
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