मुझ को तो शराब से मस्ती है और
तन क़ैद के छूटने से हस्ती है और
क़ासिम-अली दैर और हरम के अंदर
हक़ और है शौक़-ए-बुत-परस्ती है और
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ये मुश्त-ए-ख़ाक अपने को जहाँ चाहे तहाँ ले जा
ख़त्त-ए-आज़ादी लिखा था शोख़ ने फ़र्दा ग़लत
बस नहीं चलता है वर्ना अपने मर जाने के साथ
पारसा तू पारसाई पर न कर इतना ग़ुरूर
दर्द-ए-दिल का किसे करूँ इज़हार
शराब साक़ी-ए-कौसर से लीजो 'आफ़रीदी'
अपने जानान को ऐ जान इसी जान में ढूँढ
मारा जावेगा भाग ऐ नासेह
अजब तरह की है दुनिया ब-रंग-ए-बू-क़लमूँ
ख़ुदा को सज्दा कर के मुब्तज़िल ज़ाहिद हुआ अब तो
मुझे ख़ुशी कि गिरफ़्तार मैं हुआ तेरा