ख़त्त-ए-आज़ादी लिखा था शोख़ ने फ़र्दा ग़लत
दिल में रखता और कुछ ज़ाहिर लिखा इंशा ग़लत
'आफ़रीदी' जो मिले छाती लगा आँखों में रख
दस्तख़त उस का अगर इमला है सर-ता-पा ग़लत
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नासेहा वा'ज़ जो कहता था तुझे बिन देखे
कुफ़्र-ए-इश्क़ आया बदल मुझ मोमिन-ए-दीं-दार तक
मुझ को तो शराब से मस्ती है और
ये मुश्त-ए-ख़ाक अपने को जहाँ चाहे तहाँ ले जा
जता न मेरे तईं अपना तू हुनर वाइ'ज़
पारसा तू पारसाई पर न कर इतना ग़ुरूर
जो मेरा ले गया दिल कौन वो इंसान है क्या है
इस अर्ज़ के तख़्ते पर संसार है और मैं हूँ
बंदा-परवर जो न पछ्ताइएगा
कुछ अपने काम नहीं आवे जाम-ए-जम की किताब
जी रहे या न रहे हर क़दम-ए-यार न छोड़
फेर रोज़-ए-फ़िराक़-ए-यार आया