शराब साक़ी-ए-कौसर से लीजो 'आफ़रीदी'
ये बादा-नोशी-ए-दुनिया है तुझ को नंग-ए-शराब
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कहाँ का नंग रहा और और कहाँ रहा नामूस
फ़ासिक़ जो अगर आशिक़-ए-दीवाना हुआ तो क्या
यार का कूचा है मस्जूद-ए-ख़लाइक़ देख ले
काम है मतलब से चाहे कुफ़्र होवे या कि दीं
हम ने तो उजाड़ और बस्ती देखी
नर्गिसी चश्म दिखा कर के वो वहशत-ज़दा यार
मुझ को तो शराब से मस्ती है और
लब-ए-शीरीं से अगर हो न तेरा लब शीरीं
जब किसी ने आन कर दिल से मिरे पुरख़ाश की
ख़त्त-ए-आज़ादी लिखा था शोख़ ने फ़र्दा ग़लत
पाँच दिन को जो यहाँ पर आ गया
हम न महज़ूज़ हुए हैं किसी शय से ऐसे