शैख़ मुझ को न डरा अपनी मुसलमानी थाम
हम फ़क़ीरों का किसी रंग से ईमान न जाए
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शराब साक़ी-ए-कौसर से लीजो 'आफ़रीदी'
कुछ अपने काम नहीं आवे जाम-ए-जम की किताब
मुझ को तो शराब से मस्ती है और
मुझे ख़ुशी कि गिरफ़्तार मैं हुआ तेरा
ख़ुदा को सज्दा कर के मुब्तज़िल ज़ाहिद हुआ अब तो
लब-ए-शीरीं से अगर हो न तेरा लब शीरीं
हम न महज़ूज़ हुए हैं किसी शय से ऐसे
कुफ़्र-ए-इश्क़ आया बदल मुझ मोमिन-ए-दीं-दार तक
पाँच दिन को जो यहाँ पर आ गया
ये मुश्त-ए-ख़ाक अपने को जहाँ चाहे तहाँ ले जा
इश्क़ की कोई अगर सीख ले गर मुझ से तमीज़