नर्गिसी चश्म दिखा कर के वो वहशत-ज़दा यार
ये गया वो गया जिस तरह ग़ज़ाल आप से आप
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मुझे ख़ुशी कि गिरफ़्तार मैं हुआ तेरा
इस अर्ज़ के तख़्ते पर संसार है और मैं हूँ
क्या फ़रोग़-ए-बज़्म उस मह-रू का शब सद-रंग था
रखता है अपने हुस्न पर वो दिल रुबा घमंड
अब्र साँ हर-चंद रक्खा चश्म को पुर-आब हम
आशिक़-ए-सोख़्ता-दिल ख़त्त-ए-सनम दोनों एक
अगर शम्अ हुए तो गल गए हम
बंदा-परवर जो न पछ्ताइएगा
है जुदा सज्दा की जा हिन्दू मुसलमाँ की मगर
हम न महज़ूज़ हुए हैं किसी शय से ऐसे
जी रहे या न रहे हर क़दम-ए-यार न छोड़