अजब तरह की है दुनिया ब-रंग-ए-बू-क़लमूँ
कि है हर एक जुदागाना अल-अमाँ तन्हा
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इश्क़ की कोई अगर सीख ले गर मुझ से तमीज़
मातम-ए-रंज-ओ-अलम ग़म हैं बहम चारों एक
है जुदा सज्दा की जा हिन्दू मुसलमाँ की मगर
अब्र साँ हर-चंद रक्खा चश्म को पुर-आब हम
पारसा तू पारसाई पर न कर इतना ग़ुरूर
बस नहीं चलता है वर्ना अपने मर जाने के साथ
फेर रोज़-ए-फ़िराक़-ए-यार आया
हम ने तो उजाड़ और बस्ती देखी
ऐ दिल अब इश्क़ की लै-गोई और चौगान में आ
कहाँ का नंग रहा और और कहाँ रहा नामूस
किसी का राग़-ए-मतालिब किसी का बाग़-ए-मुराद
ख़ुदा को सज्दा कर के मुब्तज़िल ज़ाहिद हुआ अब तो