क्या फ़रोग़-ए-बज़्म उस मह-रू का शब सद-रंग था
क्या फ़रोग़-ए-बज़्म उस मह-रू का शब सद-रंग था
शम्अ' नहिं शर्मिंदा और मह देख रुख़ को दंग था
क्यूँ न रख्खूँ दाग़ दिल पर जैसे लाला दर-ए-चमन
ख़ाल ग़ैर-ए-फ़ाम उस रुख़्सार पर गुल-रंग था
शर्मगीं आँखों से जिस जानिब को पड़ती है नज़र
नाज़ुकी शमशीर से बिस्मिल पे अर्सा तंग था
क़त्ल में आशिक़ के शब को क्या तुझे ताख़ीर है
शोर ग़ुल था धूम थी और इज़्दिहाम आहंग था
आह ज़ारी पर किसी की वो न करता था ख़याल
गोश-ए-ज़द-आवाज़ उस दम ढोलक-ओ-मृदंग था
हो गया महव-ए-तमाशा ग़ैर की महफ़िल में क्यूँ
ग़ैर तेरे दिल मिरा ज्यूँ शीशा वक़्फ़-ए-संग था
'आफ़रीदी' इश्क़ के बाइ'स हया जाती रही
क्या हुआ तेरे तईं दा'वा जो नाम-ओ-नंग था
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