मुद्दतों बाद जो इस राह से गुज़रा हूँ 'क़मर'
अहद-ए-रफ़्ता को बहुत याद किया है मैं ने
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मंज़िलों के निशाँ नहीं मिलते
लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर याद आई
दैर ओ काबा से जो हो कर गुज़रे
ग़म की तौहीन न कर ग़म की शिकायत कर के
हर्फ़ आने न दिया इश्क़ की ख़ुद्दारी पर
जिस क़दर जज़्ब-ए-मोहब्बत का असर होता गया
नज़र है जल्वा-ए-जानाँ है देखिए क्या हो
मेरी राहों में कई मरहले दुश्वार आए
बे-नक़ाब उन की जफ़ाओं को किया है मैं ने
साक़िया तंज़ न कर चश्म-ए-करम रहने दे