मैं जिन्हें फ़रेब समझूँ तिरी याद-ए-मेहरबाँ के
मैं जिन्हें फ़रेब समझूँ तिरी याद-ए-मेहरबाँ के
वो चराग़ बुझ गए हैं मिरी उम्र-ए-जावेदाँ के
न ये लाला-ज़ार अपने न ये रहगुज़ार अपनी
वही घर ज़मीं के नीचे वही ख़्वाब आसमाँ के
ये पियाला है कि दिल है ये शराब है कि जाँ है
ये दरख़्त हैं कि साए किसी दस्त-ए-मेहरबाँ के
मुझे याद आ रहे हैं वो चराग़ जिन के साए
कभी दोस्तों के चेहरे कभी दाग़ रफ़्तगाँ के
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