रहा बरसात में ऐ शैख़ मैं सूखा न तू सूखा
यहाँ तो जिस क़दर बारिश हुई उतना लहू सूखा
भरा था इस क़दर पानी हर इक कोठे में आँगन में
नमाज़ी घर की दीवारों पे कर निकले वज़ू सूखा
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साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
'क़मर' किसी से भी दिल का इलाज हो न सका
अगर छूटा भी उस से आइना-ख़ाना तो क्या होगा
जल्वा-गर बज़्म-ए-हसीनाँ में हैं वो इस शान से
आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के
बोझ इतना भर गई थी रूह-ए-सुबुक निकल के
ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
हुक्म-ए-सय्याद है ता-ख़त्म-ए-तमाशा-ए-बहार
ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम