फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
बहुत कुछ मिट चुके बाक़ी हैं उल्फ़त के निशाँ फिर भी
मोहब्बत देखिए ठुकरा रहे हैं कारवाँ वाले
मगर पीछे चली आती है गर्द-ए-कारवाँ फिर भी
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शुक्रिया ऐ क़ब्र तक पहुँचाने वालो शुक्रिया
वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत का ज़माना
उन के जाते ही ये वहशत का असर देखा किए
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना
सुरमे का तिल बना के रुख़-ए-ला-जवाब में
आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के
अबरू तो दिखा दीजिए शमशीर से पहले
पढ़ चुके हुस्न की तारीख़ को हम तेरे ब'अद
सुर्ख़ियाँ क्यूँ ढूँढ कर लाऊँ फ़साने के लिए
मिरा ख़ामोश रह कर भी उन्हें सब कुछ सुना देना