बोझ इतना भर गई थी रूह-ए-सुबुक निकल के
इक इक का मुंतज़िर था दो-चार गाम चल के
हालाँकि घर से तुर्बत कुछ दूर थी न अपनी
पहुँचा मिरा जनाज़ा काँधे बदल बदल के
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रुस्वा करेगी देख के दुनिया मुझे 'क़मर'
अब तो मुँह से बोल मुझ को देख दिन भर हो गया
सुर्ख़ियाँ क्यूँ ढूँढ कर लाऊँ फ़साने के लिए
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
सुरमे का तिल बना के रुख़-ए-ला-जवाब में
मिरा ख़ामोश रह कर भी उन्हें सब कुछ सुना देना
इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं
मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना
सज्दे तिरे कहने से मैं कर लूँ भी तो क्या हो