ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
'क़मर' तुम बिगाड़ोगे आदत किसी की
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अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
रोएँगे देख कर सब बिस्तर की हर शिकन को
तुझे क्या नासेहा अहबाब ख़ुद समझाए जाते हैं
यही है गर ख़ुशी तो रात भर गिनते रहो तारे
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
मूसा समझे थे अरमाँ निकल जाएगा
करेंगे शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा दिल खोल कर अपना
उन्हें क्यूँ फूल दुश्मन ईद में पहनाए जाते हैं
यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले
मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है