ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
आह करता हूँ तो सय्याद ख़फ़ा होता है
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दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
सज्दे तिरे कहने से मैं कर लूँ भी तो क्या हो
ख़ून होता है सहर तक मिरे अरमानों का
बढ़ा बढ़ा के जफ़ाएँ झुका ही दोगे कमर
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
यही है गर ख़ुशी तो रात भर गिनते रहो तारे
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
'क़मर' अफ़्शाँ चुनी है रुख़ पे उस ने इस सलीक़े से
जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
दोनों हैं उन के हिज्र का हासिल लिए हुए