यही है गर ख़ुशी तो रात भर गिनते रहो तारे
'क़मर' इस चाँदनी में उन का अब आना तो क्या होगा
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करते भी क्या हुज़ूर न जब अपने घर मिले
तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक
आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के
बाग़-ए-आलम में रहे शादी-ओ-मातम की तरह
बारिश में अहद तोड़ के गर मय-कशी हुई
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर
उन्हें क्यूँ फूल दुश्मन ईद में पहनाए जाते हैं
जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
मिरा ख़ामोश रह कर भी उन्हें सब कुछ सुना देना
ख़त्म शब क़िस्सा-ए-मुख़्तसर न हुई