वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
कि मेरे बा'द सितारे कहेंगे अफ़्साने
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वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत का ज़माना
पढ़ चुके हुस्न की तारीख़ को हम तेरे ब'अद
अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
तुझे क्या नासेहा अहबाब ख़ुद समझाए जाते हैं
बला से हो शाम की सियाही कहीं तो मंज़िल मिरी मिलेगी
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'
फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
बारिश में अहद तोड़ के गर मय-कशी हुई