सुरमे का तिल बना के रुख़-ए-ला-जवाब में
नुक़्ता बढ़ा रहे हो ख़ुदा की किताब में
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ख़त्म शब क़िस्सा-ए-मुख़्तसर न हुई
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
अब तो मुँह से बोल मुझ को देख दिन भर हो गया
दोनों हैं उन के हिज्र का हासिल लिए हुए
मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने
पढ़ चुके हुस्न की तारीख़ को हम तेरे ब'अद
इस लिए आरज़ू छुपाई है
पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'