सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
कहो तो आज सजा लूँ ग़रीब-ख़ाने को
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लहद और हश्र में ये फ़र्क़ कम पाए नहीं जाते
काम आईं शोख़ियाँ न अदा कारगर हुई
हालात-ए-गुलिस्ताँ पे बहुत हम ने नज़र की
यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
तेरे क़ुर्बान 'क़मर' मुँह सर-ए-गुलज़ार न खोल
नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने
मिरा ख़ामोश रह कर भी उन्हें सब कुछ सुना देना
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो